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Sunday, 4 December 2016

राठौड़


मरुधर थारे देश में आ रण मीठी तलवार सिर कटे और धड लडे,रखे राठोडी शान सिर कटे और धड लडे, रखे राठोडी शान रहे हाथ ढाल तलवार और मजबूती !
तू धर दे चामुंडा रजपूतों में मजबूती !! तू धर दे चामुंडा रजपूतों में मजबूती !!
मेडतिया रघुनाथ रे मुख पर बांकी मुछ ! भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ !! भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ !!
मेडतिया रघुनाथ रासो, लड़कर राखयो मान ! जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड !! जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड !!
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड ! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ ! गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !! गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !!
दारु मीठी दाख री, सूरां मीठी शिकार ! सेजां मीठी कामिणी, तो रण मीठी तलवार !!

                                                 "कुंवर धर्मेन्द्र सिंह चौहान "

जय राजपुताना

चित्तौड़ के तीसरे साके में वीरगति पाने वाले महान योद्धा पत्ता/फत्ता चुण्डावत का स्मारक, जिनकी तुलना अकबर ने 1000 घुड़सवारों से की फत्ता जी को लोक देवता की तरह पूजा जाता है।
चित्तौड़ के तीसरे साके में ये लड़ते-लड़ते अकबर के पास पहुंचे ही थे कि तभी एक हाथी ने इन्हें जमीन पर पटक दिया फत्ता जी अकबर को कुछ कहने ही वाले थे कि तभी इनके प्राण चले गए ये सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए।

इनके माता-पिता, 9 रानियाँ, 5 पुत्रियों व 4 पुत्रों ने मेवाड़ के लिए समय-समय पर बलिदान दिए।
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ठाकुरो का राज...उदयप्रताप कॉलज ~ वाराणसी


उत्तर प्रदेश में एक जगह ऐसा भी है जहॉ मस्जिद में लाउडस्पीकर लगाना बैन है... जी हॉ सच है ये..मैं बात कर रहा हूँ वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज स्थित मस्जिद की...यहॉ कोई लाउडस्पीकर नहीं लगा सकता...ना ही तेज आवाज में अल्लाहका बोल सकता है...राजपूतों के दबदबे वाले इस कॉलेज के अपने कायदे कानून है जिसे तोड़ने की औकात उत्तर प्रदेश सरकार
की भी नहीं है....
पुरे शहर भर में उदय प्रताप कॉलज प्रसिद्ध है

यहा से छात्र संघ अध्यक्ष सुमित सिंह है और उपाध्यक्ष आशुतोष सिंह
राजपूतो के अलावा कोई छात्र संघ अध्यक्ष नही बनता।
भिंगा के राजा उदय प्रताप सिंह जी ने वाराणसी में अपने नाम से उदय प्रताप कॉलेज खोला गया।
100 साल से भी पुराना 1909 में खुला
वी पी सिंह जैसे प्रधानमंत्री भी यहाँ कॉलज के प्रेजिडेंट रहे।

ll हल्दीघाटी युद्ध-18 जून, 1576 ll


यह इलाका मेवाड़ क्षेत्र में पड़ता है राजस्थान में एकलिंगजी से 18 किमी तथा उदयपुर से 40 किमी दूर है.यह अरावली पर्वत शृंखला में एक दर्रा है जो उदयपुर के राजसमंद और पाली जिलों को जोड़ता है। इतिहासकारों के अनुसार हल्दीघाटी यानि रणस्थली.इस इलाके का नाम 'हल्दीघाटी' इसलिए पड़ा क्योंकि यहां की मिट्टी हल्दी जैसी पीली है...!

एक ऐसा युद्ध जिसकी गाथा इतिहास के पन्नों पर रक्तिम अक्षरों में लिखी है.यहां युद्ध के दौरान इतना खून बहा की मिट्टी तक लाल हो चुकी है.18 जून 1576, इस दिन मुगल आक्रांता अकबर और मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के बीच खूनी संघर्ष हुआ.युद्ध से पहले अकबर के जेहन में न सिर्फ मेवाड़ को अधीन करना, बल्कि महाराणा प्रताप को बंदी बनाना भी था.अकबर की यह अभिलाषा इस युद्ध में पूरी नहीं हुई. इसलिए अकबर ने जयपुर के मानसिंह को यह कार्य सौंपा लेकिन मानसिंह भी अकबर की इस ख्वाहिश को पूरी नहीं कर सके.
पांच दिन बाद (23 जून, 1576) अकबर के खास लड़ाके बदायूंनी ने उनके सामने महाराणा प्रताप का हाथी रामप्रसाद और लूट का सामान पेश किया.इससे अकबर को थोड़ी सी भी संतुष्टि नहीं हुई वो प्रताप को बंदी रूप में देखना चाहते थे हालांकि इस अभिलाषा को पूरी करने में अकबर के दिग्गजों के छक्के छूट गए थे.इस घाटी में इतना खून बहा था कि हल्दीघाटी, पीली के बजाय लाल हो गई थी.यही वजह है कि हल्दीघाटी (बाहर से) देखने में तो पीली दिखाई पड़ती है लेकिन मिट्टी को थोड़ा सा खुरचा जाए तो वो लाल दिखाई पड़ती है.हर सच्चे भारतवासी को महाराणा जी पर गर्व था और सदा रहेगा.

||| हर हर महाराणा-घर घर महाराणा |||

Saturday, 3 December 2016

वीर सम्राट सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य

वीर सम्राट सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य
हेम चन्द्र सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य दिल्ली के सिंहासन पर बैठे अंतिम हिन्दू सम्राट थे। उन्होंने भारत को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अत्यंत साहसी तथा पराक्रमपूर्ण विजय प्राप्त की थीं। हेमचन्द्र अलवर क्षेत्र में राजगढ़ के निकट माछेरी ग्राम में 1501 ईं. में जन्मे धार्मिक संत पूरणदास के पुत्र थे। बाद में उनका परिवार सुन्दर भविष्य की कामना से रिवाड़ी आ गया था तथा वहीं हेमचन्द्र ने शिक्षा प्राप्त की थी।
उन दिनों ईरान-इराक से दिल्ली के मार्ग पर रिवाड़ी महत्वपूर्ण नगर था। उन्होंने शेरशाह सूरी की सेना को रसद तथा अन्य आवश्यक सामग्री पहुंचानी शुरू कर दी थी तथा बाद में युद्ध में काम आने वाले शोरा भी बेचने लगे थे। शेरशाह सूरी की मृत्यु 22 मई, 1545 ईं. को हुई थी। यह कहा जाता है कि शेरशाह के उत्तराधिकारी इस्लामशाह की नजर रिवाड़ी में हाथी की सवारी करते हुए, युवा, बलिष्ठ हेमचंद्र पर पड़ी तथा वे उसे अपने साथ ले गए, उनकी प्रतिभा को देखकर इस्लामशाह ने उन्हें शानाये मण्डी, दरोगा ए डाक चौकी तथा प्रमुख सेनापति ही नहीं, बल्कि अपना निकटतम सलाहाकार बना दिया। साथ में 1552 ई. में इस्लामशाह की मत्यु पर उसके 12 वर्षीय पुत्र फिरोज खां को शासक बनाया गया, परन्तु तीन दिन के बाद आदित्यशाह सूरी ने उसकी हत्या कर दी। नए शासक का मूलत: नाम मुवरेज खां या मुबारक शाह था, जिसने 'आदित्यशाह' की उपाधि धारण की थी। आदित्यशाह एक विलासी शराबी तथा निर्बल शासक था। उसके काल में चारों ओर भयंकर विद्रोह हुए। आदित्यशाह ने व्यावहारिक रूप से हेेमचन्द्र को शासन की समस्त जिम्मेदारी सौंपकर, प्रधानमंत्री तथा अफगान सेना का मुख्य सेनापति बना दिया। अधिकतर अफगान शिविरों ने भी आदित्यशाह के खिलाफ विद्रोह कर दिए थे। हेमचन्द्र ने अद्भुत शौर्य तथा वीरता का परिचय देते हुए एक-एक करके उनके विरुद्ध 22 युद्ध लड़े तथा सभी में महान सफलताएं प्राप्त की थीं। उसने एक-एक करके आदित्यशाह के सभी शत्रुओं को पराजित कर दिया।
1556 ईं. में जब बाबर का ज्येष्ठ पुत्र हुमायुं पुन: भारत लौटा तथा उसने खोये साम्राज्य पर अधिकार करना चाहा। आदित्यशाह स्वयं तो चुनार भाग गया, और हेमचन्द्र को हुमायूं से लड़ने के लिए भेज दिया। इसी बीच 26 जनवरी, 1556 ई. को अफीमची हुमायूं की, जो जीवन भर इधर-उधर भटकता तथा लुढ़कता रहा, सीढियों से लुढ़क कर मौत हो गई। हेमचन्द्र ने इस स्वर्णिम अवसर को न जाने दिया। उन्होंने भारत में स्वदेशी राज्य की स्थापना के लिए अकबर की सेनाओं को आस-पास के क्षेत्रों से भगा दिया। हेमचन्द्र ने सेना को संगठित कर, ग्वालियर से आगरा की ओर प्रस्थान किये। उनकी विजयी सेनाओं ने आगरा के मुगल गवर्नर सिकन्दर खां बेगम को पराजित किया। हेमचन्द्र ने अपार धनराशि के साथ आगरा पर कब्जा किया। और वे विशाल सेना के साथ अब दिल्ली की ओर बढे। दिल्ली का मुगल गवर्नर तारीफ बेग खां अत्यधिक घबरा गया तथा भावी सम्राट अकबर तथा बैरमखां से एक विशाल सेना तुरन्त भेजने का आग्रह किया। बैरमखां की सेना जो पंजाब के गुरुदासपुर के निकट कलानौर में डेरा डाले पड़ी थी, बैरमखां ने तुरन्त अपने योग्यतम सेनापति पीर मोहम्मद शेरवानी के नेतृत्व में एक विशाल सेना देकर भेजा। भारतीय इतिहास का एक महान निर्णायक युद्ध 6 अक्तूबर, 1556 ई. तुगलकाबाद में हुआ जिसमें लगभग 3000 मुगल सैनिक मारे गए। आखिर 7 अक्तूबर, 1556 को भारतीय इतिहास का वह विजय दिवस आया जब दिल्ली के सिंहासन पर सैकड़ों वर्षों की गुलामी तथा अधीनता के बाद हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई। यह किसी भी भारतीय के लिए, जो भारतभूमि को पुण्यभूमि मातृभूमि मानता हो, अत्यंत गौरव का दिवस था।
हेमचन्द्र का राज्याभिषेक भी भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटना थी। भारत के प्राचीन गौरवमय इतिहास से परिपूर्ण पुराने किले (पांडवों के किले) में हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार राज्याभिषेक था। अफगान तथा राजपूत सेना को सुसज्जित किया गया। सिंहासन पर एक सुन्दर छतरी लगाई गई। हेमचन्द्र ने भारत के शत्रुओं पर विजय के रूप में 'शकारि' विजेता की भांति ' विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। नए सिक्के गढ़े गए। राज्याभिषेक की सर्वोच्च विशेषता सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य की घोषणाएं थीं जो आज भी किसी भी प्रबुद्ध शासक के लिए मार्गदर्शक हो सकती हैं।
सम्राट ने पहली घोषणा की, कि भविष्य में गोहत्या पर प्रतिबंध होगा तथा आज्ञा न मानने वाले का सिर काट लिया जाएगा। सम्भवत: यह समूचे पठानों, मुगलों, अंग्रेजो तथा भारत की स्वतंत्रता के बाद तक की दृष्टि से पहली घोषणा थी। ( देश की स्वतंत्रता के पश्चात डा. राजेन्द्र प्रसाद ने ऐसे 3000 पत्रों व तारों को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को भेजते हुए आग्रह किया था कि भारत का पहला कानून 15 अगस्त, 1947 को गोहत्या बन्द के बारे में होना चाहिए। तत्कालीन प्रकाशित पत्र-व्यवहार से ज्ञात होता है कि मिश्रित संस्कृति का ढोंग पीटते हुए पं. नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया था ) ।
जहां दिल्ली में यह विजय दिवस था, वहां बैरमखां के खेमे में यह शोक दिवस था। आगरा, दिल्ली सम्भलपुर तथा अन्य स्थानों के भगोड़े मुगल गवर्नर अपनी पराजित सेनाओं के साथ मुंह लटकाए खड़े थे। अनेक सेनानायकों ने हेमचन्द्र के विरुद्ध लड़ने से मना कर दिया था, वे बार-बार काबुल लौटने की बात कर रहे थे। परन्तु बैरमखां इस घोर पराजय के लिए तैयार न था। आखिर 5 नवम्बर, 1556 ई. को पानीपत में पुन: हेमचन्द्र व मुगलों की सेनाओं में टकराव हुआ।
प्रत्यक्ष द्रष्टाओं का कथन है कि हेमचन्द्र के दाईं और बाईं ओर की सेनाएं विजय के साथ आगे बढ़ रही थीं। केन्द्र में स्वयं सम्राट सेना का संचालन कर रहे थे। परन्तु अचानक आंख में एक तीर लग जाने से वे बेहोश हो गए। देश का भाग्य पुन: बदल गया। हेमचन्द्र को बेहोश हालत में ही सिर काट कर मार दिया गया। उनका मुख काबुल भेजा गया तथा शेष धड़ दिल्ली के एक दरवाजे पर लटका दिया गया। उससे भी उनकी जब तसल्ली न हुई उनके पुराने घर मछेरी पर आक्रमण किया गया। लूटमार की गई, उनके 80 वर्षीय पिता पूरनदास को धर्म परिवर्तन के लिए कहा गया, न मानने पर उनका भी कत्ल कर दिया गया।

क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व

पौराणिक पुस्तकों, वेदों एवं स्मृति ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में आर्यों के लिए निर्धारित नियम थे, परन्तु जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं थी और न ही कोई राजा होता था। आर्य लोग कबीलों में रहते थे और कबीलों के नियम ही उन पर लागू होते थे। आर्य लोग श्रेष्ठगुण और कर्म वाले समूहों के अंग थे। आर्यों ने गुणों एव कर्मों के अनुसार वर्णों की व्यवस्था की थी। उस समय आर्यो का विशिष्ट कर्म यज्ञ करना था।
भगवान कृष्ण ने गीता के चतुर्थ अध्याय एवं 13 वें श्लोक में कहा था कि मैंने इस समाज को उसकी कार्यक्षमता, गुणवत्ता, शूरवीरता, विद्वता एवं जन्मजात गुणों, स्वभाव और शक्ति के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया।
चातुर्वण्र्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्वयकर्तामव्ययम् ।। 
श्री कृष्ण ने गीता के तृतीय अध्याय एवं 10 वें श्लोक में कहा है कि ब्राद्या्र ने प्रजापति से कहा कि यज्ञ तुम्हारी वृद्वि तथा इच्छित फल देने वाला है। इसके बाद इन आर्यों को गुणों एवं कर्मों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया। वर्ण व्यवस्था का पहला अंग था ब्राह्मण, जिसका कार्य यज्ञ करना, वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों का पठन करना, पढ़ाना तथा अन्य वर्णों को धर्म का मार्ग दिखाना। दूसरा अंग था क्षत्रिय जिसका मुख्य कार्य समूहों की रक्षा करना, वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा समाज को नियंत्रण में रखना था। तीसरा अंग था वैश्य, जिनका मुख्य कार्य वाणिज्य, कृषि एवं धर्म ग्रन्थों को पढ़ना आदि था। चौथा अंग था शूद्र, जिसका कार्य उपरोक्त तीनों अंगों की सेवा करना था। ऋग्वेद में लिखा है:-
यत्पुरूष व्यदधु कतिध व्यकल्पयन।मुखं किमस्य को बाहु काबूरू पादा उच्यते ।।
ब्राद्य्राणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य कृतः । उरू तदस्य मद्धस्य पदभ्यां शूद्रोज्जायतः।।

प्रजापत ने मानव समाज रूपी जिस पुरूष का विधान किया। मुख कौन, हाथ कौन, जंघा कौन और पैर कौन इसके उत्तर में कहा कि मुख ब्राद्य्राण, हाथ क्षत्रिय, जंघा वैश्य और पैर शूद्र हैं। मनुस्मृत में कहा गया है कि:-
येषान्तु याद्धशड.क्म्र्म भूतानामिह कीर्तितम्
तत्तथा वोड़भिधास्यामि क्रम योगण्च जन्मनि। (चै. 48)
जिस जाति का जैसा कर्म प्रजापति ने बताया है, वैसा ही कार्य उनके लिए उचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनु से पहले ही आर्यों ने वर्ण व्यवस्था बना ली थी।
ब्राह्मण : विद्वान, शिक्षा का कार्य करने वाला, निपुण पुरोहित एवं कर्मकाण्डी, यज्ञ तथा पूजा पाठ करने वाले को बा्रद्य्रण वर्ण में रखा गया है। इनको छूट है कि वे वैश्य एवं क्षत्रिय के भी कार्य कर सकते हैं। शिक्षा, शिक्षक और पुरोहित इनके मुख्य कार्य हैं तथा विशिष्ट परिस्थिति में यह हथियार उठाने में भी संकोच न करने वाले और कृषि का कार्य भी अपने हाथों में ले सकते हैं। इनको केवल वैश्य और शूद्र के कार्य करना वर्जित है। इन्हें अपने कार्य के अलावा कृषि का कार्य करने में संकोच नहीं करना चाहिये। मनुस्मृत के अनुसार बा्रद्य्राण शादी-ब्याह अपने वर्ण के अलावा, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी कर सकते है। लेकिन पहली शादी अपने वर्ण में ही करना आवश्यक है।
वैश्य : वैश्य का मुख्य कार्य व्यापार एवं कृषि है, परन्तु विशेष परिस्थिति में इन्हें हथियार उठाना वर्जित नहीं है। (मुनस्मृत में वर्णित) तदोपरान्त दूसरे वर्ण की जातियों में शादी करने में कोई बन्दिश नहीं है। क्षत्रिय और वैश्य वंश में अपनी शादी कर सकते हैं। (मनुस्मृति के अनुसार)
शूद्र : इस वर्ण को ब्राद्य्रण, क्षत्रिय, वैश्य द्वारा बताए गए कार्यों को करना तथा कृषि एवं दूसरे कार्य जो उपरोक्त तीनों वर्ण द्वारा बताये गए है को सम्पन्न करना तथा अपनी जीविका के कार्य करना। ये अपने वर्ण में ही शादी कर सकते हैं।
विभिन्न जातियों के कत्र्तव्य (कर्म) मनुस्मृति के अनुसार शस्त्र चलाना क्षत्रियों का कार्य है परन्तु बा्रद्याण और वैश्य जब धर्म पर आपत्ति आये तो उन्हें शस्त्र उठाना वर्जित नहीं है। महाभारत में वर्णित है कि:-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वबा्रद्यमिदं जगत्।
ब्रद्याणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।
(भृगु ऋषि ने महर्षि भारद्वाज के प्रश्न के उत्तर में कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में वर्ण भिन्न-भिन्न नहीं थे, ब्रद्य से उत्पन्न होने के कारण सभी का नाम ब्राद्य्रण था।)
वज्र सूच्युपनिषद् में जिज्ञासु शिष्य अपने गुरू से पूछता है कि क्या कोई जाति से बा्रद्य्रण होता है ? इसका उत्तर देते हुए ऋषिवर ने स्पष्ट किया कि ब्राह्मणों की कोई जाति नहीं है, अनेक महर्षि दूसरी अन्य जातियों से उत्पन्न हुए हैं।
सभी धर्म ग्रन्थों को देखने से यही स्पष्ट होता है कि ब्रद्य्रा ईश्वर के शरीर के चारों अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है। इसका तात्पर्य यह है कि समूचा आर्य-जगत ईश्वर स्वरूप था, जिसे कर्मों के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया, ताकि समाज का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।
आगे चलकर चारों वर्णों के बनाए जाने के बाद आर्य-जगत ने यह अनुभव किया कि सामूहिक शासन ठीक नहीं है। इसलिए समूह ने अपना प्रतिनिधि शासक बनाने का विचार किया। समूह द्वारा निर्णय लेने के बाद प्रतिनिधियों ने क्षत्रिय को राजा बनाया। यह क्षत्रिय सूर्य और उसकी पत्नी सरण्यु से उत्पन्न आर्य संतान पहला क्षत्रिय मनु था, जिसे प्रथम राजा बनाया गया। उसका राज्याभिषेक वायु नाम ऋषि ने किया।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय में 41,42,44,43 श्लोक में इस वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तृत वर्णन किया है जो इस प्रकार है:-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणाम च परन्तप।
कर्माणि प्रतिभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।। 
हे परंतप! बा्रद्यण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं। ।। 41 ।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रद्य्राकर्म स्वभावजम्।।
अन्तः करण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहन, बाहर-भीतर से शुद्वरहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्वा रखना; वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना- ये सब के सब ही बा्रद्य्रण के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 42 ।।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मं स्वभावजम्
परिचयात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप, सत्य व्यवहार - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।। 44 ।।
क्षत्रिय
शौर्यंतेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभाववश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वाभिमान - ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 43 ।।
ऋग्वेद में क्षत्रिय के कर्म गुंण और स्वभाव के विषय में लिखा है।
धृतव्रता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रियः।
अग्नि होता ऋत सापों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये ।।
क्षत्रिय नियमों का पालक, यज्ञ करने वाला, शत्रुओं का संहारक, युद्व में सधैर्य और युद्व क्रियाओं का ज्ञाता होता है।
क्षतात् किलत्रायत इत्युग्रह,
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढा। (कालिदास)
अर्थात्:- विनाश या हानि से रक्षा करने के अर्थ में यह क्षत्रिय शब्द सारे भुवनों में प्रसिद्व है।
नियम पालनकर्ता, सत्य के अनुसार चलने वाला, शूरवीर, कुशलप्रशासक, दृढसंकल्प, अद्भूत संगठनकत्र्ता, शरणागत की रक्षा करने वाला, दूरदर्शी, चरित्रवान, युद्व मं न डरने वाला तथा अपने गुणों के कारण दूसरों पर प्रभाव डालने वाला। तथा प्रजापालक को क्षत्रिय के वर्ण में रखा गया है। ये गीता के ( अध्याय 18 वें और श्लोक 43 वें) में वर्णित है।
शोर्यं तेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
छानमीश्रव्रभावश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्व में से न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। क्षत्रिय के शब्दार्थ के अनुसार वो दूसरोे को आश्रय तथा संरक्षण एवं सुरक्षा देने वाला। क्षत्रिय अपने वर्ण के अतिरिक्त वैश्य, शूद्र वर्ण में शादी कर सकते है। परन्तु पहले अपने वर्ण में तथा बाद में दूसरे वर्ण में इनको शादी करना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति के अनुसार)
वेदों में क्षत्रियों के लिए लिखा है उसमें ‘‘क्षतात्च ते इति क्षत्रिय‘‘ अर्थात् जो वर्ग कमजोरों की सहायता करे और रक्षा करें वो क्षत्रिय है। उस काल में क्षत्रियों के नियम थे असहाय की रक्षा करना, देशद्रोहियों को दण्ड देना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, बूढ़ों और विद्वानों की सेवा करना, धैर्यवान होना, युद्व से नहीं डरना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रियों के गुण है।
राजपूत : राजपूत शब्द का प्रचलन मुस्लिम काल में हुआ। जैसे भारत के लिए हिन्दुस्तान शब्द का तथा सनातन धर्म को हिन्दु धर्म कहा जाने लगा। इसी प्रकार क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द काम में लिया जाने लगा। राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है। कहीं-कहीं पर इसे रजपूत शब्द का भी प्रयोग किया गया। रज के अर्थात् मिट्टी, धरती। इसी लिए इन्हें धरती पुत्र भी कहा जाता है। परन्तु राजपूत शब्द प्रचलन में बहुत आया। राजपुत्र के शब्दार्थ है राजा का पुत्र। धीरे-धीरे राजाओं के पुत्रों के परिवार की संख्या बढ़ने लगी और उन सभी को राजपुत्र कहा जाने लगा तथा धीरे-धीरे राजपूत शब्द में परिवर्तित हो गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है राजपूत राजपुत्र का ही अपभ्रंश है।

पुराने समय में राजपुत्र शब्द जातिवाचक नहीं था। अपितु परिवार वाचक था और राजकुमार या राजवंशियों का सूचक था। क्योंकि प्राचीनकाल में सारा भारत वर्ष क्षत्रियों के अधीन था और राजकुमारों तथा राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीन लेखकों ने जैसे कौटिल्य, कालिदास, बाणभट्ट ने अपनी रचनाओं में राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। यहीं राजपुत्र धीरे-धीरे राजपूत शब्द के रूप में परिवर्तित हो गया और चूँकि यह सभी क्षत्रिय थे, अतः क्षत्रिय के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा। राजपूत शब्द का प्रयोग महमूद गजनवी के समय तक नहीं था। उसके साथ ‘अलबेरूनी‘ भारत आया था, जो बड़ा विद्वान था। उसने अरबी में बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं और भारत की विद्याओं, धर्मों और रीति-रिवाजों आदि का अध्ययन किया। उसने अपने ग्रन्थों में क्षत्रियों का वर्णन किया है, परन्तु कहीं भी राजपूत या राजपुत्र शब्द का प्रयोग नहीं किया। मोहम्मद गौरी के समय तथा अलबेरूनी की मृत्यु 1048 के बाद राजवंशियों को राजपूत नाम से संबोधित किया जाने लगा और धीरे-धीरे यह शब्द जो पहले वंशसूचक था जाति सूचक बन गया और क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द का प्रयोग होने लगा। अब क्षत्रियों और राजपूतों को एक ही नाम तथा जाति से जाना जाता है। अतः क्षत्रिय ही राजपूत और राजपूत ही क्षत्रिय है।
क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरूआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को सरंक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्ववामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठत हुये।
उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्तव प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।
राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। बा्रह्यण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ठ होता है कि राज्य शक्ति से सम्मलित क्षत्रिय जो बा्रह्यणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेंष्ठ स्वीकार किये गये। बा्रह्यण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अवश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने बा्रह्यण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं मंे भी क्षत्रियों ने ब्रह्यणों के एकाधिकर को चुनौती दी। इन परिस्थतियों में क्षत्रियों ने बा्रह्यणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि बा्रह्यणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।
इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुन्दर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणीकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊँची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरान्त विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भू-खण्ड के चक्रवर्ती समा्रट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाईयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धम्र और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।
परम् ब्रह्य परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्शवान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनन्दित और आत्मा पुलकित हो उठती है।
परम् श्रद्धेय अयोध्यापति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं नहीं बौद्व धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होनें उस समय देश को अंहिसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभाव पूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।
सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाग्ड.मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक सहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रन्थ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात् लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षतित्रों का सर्वभौम प्रभुत्व था।
मौर्यकाल का इतिहास तिथिवार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्यकाल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सर्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दु भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूल्यतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।
इस प्रकार महान ओर व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ठ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण ओर भी सबल बनी है।
अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राजनियम, राजविधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उननति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं सरंक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।
निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतैव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और परलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरादायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।
पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवासुर संगा्रम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सर्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषेदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौनसी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति है जिसमें पुरूषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्व धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है ‘‘क्षत्रिय‘‘।
जिस समय संसार की अन्य जातियाँ अपने पैरों पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान सामा्रज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शानित के जन्मदाता थे। स्वर्णयुग भारत ज्ञान गुरू भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हुर्ण, कुशान जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होनें इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होनें देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित सामा्रज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। सामा्रज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुपत हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।
क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकडों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होनें हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहूति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा। इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकेड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निश्तेज होकर स्वतः शानत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुस्लमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।
महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्व धर्म स्वीकार कर लिया और अंहिसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्षवर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्व हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होनें भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्व धर्म समाज की शााश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वभाविक छात्र शक्ति को निश्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतैव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रिय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परंन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याणकारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं। 
स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संगा्रम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता। 
अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्ति च, हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा - पाबू जी राठौड़ भाग 2

राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा 
पाबू जी राठौड़ भाग 2

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भाद्रपद मास की बरसात सी झूमती हुई एक बारात जा रही थी। उसकी बारात जिसने विवाह पहले ही सूचना दे दी थी कि- ' मेरा सिर तो बिका हुआ है , विधवा बनना है तो विवाह करना !' उसकी बारात जिसने प्रत्युतर दिया था - जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका नहीं है , वह अमर है।उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता। विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है ।
ढोली दुहे गा रहा था -
धरती तूं संभागणी ,(थारै) इंद्र जेहड़ो भरतार।
पैरण लीला कांचुवा , ओढ़ण मेघ मलार।।
रंग आज आणन्द घणा, आज सुरंगी नेह।
सखी अमिठो गोठ में , दूधे बूठा मह।।
गोरबंद और रमझोलो से झमक झमक करते हुए ऊँटों और घोड़ों वाली वह बारात जा रही थी , सूखे मरुस्थल की मन्दाकिनी प्रवाहित करती हुई , आनंद और मंगल से ठिठोली करती हुई । परन्तु कौन जनता था कि उस सजी सजाई बारात का वह अलबेला दूल्हा एक दिन जन जन के हृदय का पूज्  देवता बनेगा ?
कौन जानता था? कि सेहरे और पाग की कलंगी और तुर्रों से सजे हुए उस दुल्हे के मन में , जरी गोटे से चमचमाते अचकन बागों में छिपे उसके हृदय में भी एक अरमान था -एक प्रतिज्ञा थी - एक जीवन था -एक तडफन थी -एक आग थी -मेरा ज्ञानार्जन ,मेरा विवाह ,मेरा कुटुंब पालन और मेरे जीवन के समस्त व्यापार एक आर्त की पुकार पर बलि होने के लिए है ।
कौन जानता था? कि उस मौर के समान मीठी बोली वाली ,हिरन के समान कातर नयन वाली, वायुरहित स्थान की लौ सी नासिका वाली, नंदन वन के किसी चंपा की लम्बी डाली जैसे हाथों वाली , चक्रव्यूह की लज्जा और सीता के समान शील वाली देव बाला सी, उमरकोट के बगीचों की अप्सरा सी, रूपमती दुल्हिन गठजोड़े के लिए मिलेगी ?
कौन जानता था? कि स्वर्ग के सोंदर्य को लज्जित करने वाला ऐसा आकर्षक विलास भी गोरक्षा की प्रतिज्ञा के समक्ष श्रीविहीन होकर कोने में प्रतीक्षा करता रह जायेगा ?
कौन जानता था? कि शहनाइयों की गमक ,मांगलिक और मधुर आभूषणों की ठुमक , मनुहारों के उल्लास भरे वातावरण की झमक-झमक में जिस समय झीने घूँघट में छिपे अनुपम और सोंदर्य के किनारों से हृदय-समुद्र की उताल तरंगे पछाड़ खाने को प्रस्तुत होगी , उस समय भाग्य का कोई क्रूर हरकारा भरे हुए प्यालों को ठुकरा कर , जीवन की मधुर हाला को आँगन में ही बिखरने को तैयार हो जायेगा ?
कौन जानता था? कि चारणी भी चील का रूप धारण कर याद दिलाने आएगी - ' राही ! विधाता ने तुम्हारे लिए जो मार्ग निश्चित किया था वह तो कोई दूसरा ही मार्ग है। इस लौकिक पुष्प में जिस सोंदर्य की खोज में भंवरे बन कर आये हो वह अलौकिक सोंदर्य यहाँ नहीं है। दुल्हे ! तेरी बारात तो सजकर यहाँ आई है परन्तु तेरे विवाह की तैयारियां कहीं और हो रही है। तू इस स्वागत से आत्मविभोर हो रहा है परन्तु इससे भी अधिक सुन्दर स्वागत की तैयारियों के लिए किसी अन्य स्थान पर दौड़ धूप हो रही है - देखो , गगन की गहराइयों में , स्वर्ग की अप्सरा ए तुम्हारे लिए वर मालाएँ लेकर खड़ी है !'
बाड़मेर के पूर्व सांसद स्व. श्री तनसिंह जी द्वारा लिखित
कौन जनता था? कि विवाह के ढोल-धमाकों में भी कर्तव्य की क्षीण पुकार कोई सुन सकता है।मादकता के सुध बुध खोने वाले प्यालों को होटों से लगाकर भी कोई मतवाला उन्हें फेंक सकता है , वरमाला के सुरम्य पुष्पों को भी सूंघने के पहले ही पैरों तले रोंद सकता है ?
कौन जानता था? कि मिलन का यह अनुपम अवसर उपस्थित होने पर ब्राह्मण कहता ही रहेगा -अभी तो तीन फेरे ही हुए है ,चौथा बाकी है ,उस समय गठजोड़े को छोड़कर सुहागरात की इन्द्रधनुषीय सतरंगी शय्या के लोभ को ठोकर मारकर ,भोग-एश्वर्य के दुर्लभ स्वाति-नक्षत्र के समय युगों का प्यासा चातक पिऊ पिऊ करता हुआ ,प्यास को ही पीकर ,रागरंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर , कंकण डोरों को बिना खोले ही कर्तव्य मार्ग का बटोही मुक्त हो जायेगा ?
और वह चला गया -क्रोधित नारद की वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ ,भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ , उत्तेजित भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर,
कौन जानता था?  कि नारद की वीणा का वह क्रोधित तार स्वरों की उत्तेजना में ही टूट जायेगा ,भागीरथ के बल खाते हट को न झुकने की इतनी कीमत चुकानी पड़ेगी ? भीष्म की प्रतिज्ञा को आलिंगन-बद्ध भोगों को बिना भोगे ही विदा करना पड़ेगा ?
कौन जानता था? कि चांदे और ढेमे के बीच वह शूरमा पाबू संसार में अपने पीछे लड़ने के इतिहास का अनिर्वचनीय उदहारण रखकर ,सितारों की ऊँचाइयों को नीचा दिखाने वाली केशर कालवी पर सुन्दर स्वागत का साक्षत्कार करने के लिए अनंत की गहराइयों में सशरीर ही पहुँच जायेगा और तब दिशाएँ वियोगिनी बनकर ढूढती रह जाएगी ,मानवता विधवा बनकर सिसकती रह जाएगी ?
कौन जानता था? कि जिसने अग्नि की पूरी परिक्रमाएँ ही साथ नहीं दी ,जिसके हथलेवे का हाथ पकड़ने से पहले ही छोड़ दिया गया , जिसके महावर की लगी हुई मेहँदी ने सुखकर अपनी अरुणिमा का परिचय भी नहीं दिया , जिसकी आँखे किसी का रूप देखने से पहले लज्जा के कारण अपने घूँघट को ऊँचा तक नहीं उठा सकी , वही दुल्हन अपने नए ससुराल में उसी वर से दुबारा पाणिग्रहण कराने के लिए हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति से चिरमिलन के लिए चल देगी ?
वह चली गयी -उमरकोट के राणा सूरजमल की कोख की जीती जागती ज्योति चली गयी ,परम ज्योति से मिलने के लिए ; केशर कालवी चली गई , विस्मृति की कालिमा में खोने के लिए ; लेकिन स्मृति बाकी रह गई ; पाबू की अमर स्मृति जो आज भी कोलू के पास मरुस्थल के टीलों पर आत्मविभोर हो वीणा वादन कर रही है ; राजस्थान का जनगण उसी की स्मृति का कथाओं और गीतों की लोरों में , रावणहत्थों की धुन के साथ पड़ और पड़वारों में पूजन करता है । पड़ लगती है ,रतजगे होते है , पाबू का यशगान होता है - कि पाबू भी एक क्षत्रिय था।
•     ये था बाड़मेर के पूर्व सांसद स्व. श्री तन सिंह द्वारा लिखित पुस्तक " बदलते दृश्य" में राजस्थान के लोक देवता पाबू जी राठौड़ पर आलेख है।
•     केशर कालवी - यह पाबू जी की घोड़ी का नाम था।
•     पाबू जी द्वारा अपने विवाह में फेरों के उपरांत बिना सात फेरे पूरे किये ही बीच में उठकर गोरक्षा के लिए जाने व अपना बलिदान देने के बाद राजस्थान में राजपूत समुदाय में अब भी शादी में चार ही फेरे लिए जाते है।

राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा - पाबू जी राठौड़ भाग 1

राजपूताना समाज मे शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा

(Why-take-Four-rounds-at-the-wedding in Rajput community)
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पाबू जी राठौड़ भाग 1
वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। हिंदू धर्म में विवाह संस्कार को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है।
विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का भी एक चलन है। जो सबसे मुख्य रस्म होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवन भर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है -
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!!
(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थ यात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है--गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीय!!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ!!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहदि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ- साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा- जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या!!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।
मेरी जिज्ञासा भी यह जानने की रही, कि आखिर ऐसा क्यों? सात फेरों की जगह सिर्फ चार फेरे ही क्यों? हमारे राजपूताना समाज मे चार ही फेरे होते हैं मेरे भी चार ही फेरे हुये थे। यूँ तो बचपन से बहुत सी शादियाँ देखी पर कभी ध्यान ही नहीं दिया कि हमारे यहाँ सात नहीं सिर्फ चार फेरे ही होते है । विवाह एक ऐसी परंपरा है जहाँ केवल स्त्री-पुरुष का मिलन ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी होता है । हिन्दू धर्म में अलग-अलग क्षेत्रों में विवाह संस्कारों की अलग-अलग विधि पाई जाती है, पर अक्सर सुनने को मिलता है कि "सात फेरे" एक ऐसी रस्म है जिसके बिना किसी भी क्षेत्र में विवाह पूर्ण नहीं माना जाता।
वर्ष 1985 में 'घर-द्वार' फिल्म में एक गीत फिल्माया गया था "सात फेरों के सातों वचन...",अगर इसी गीत को कुछ इस प्रकार गाया जाए "चार फेरों के सातों वचन..." तो थोड़ा अजीब नहीं लगेगा?
कुछ लोगों से पूछा कि उनकी शादी में कितने "फेरे" हुए? तो किसी ने कहा -चार, तो किसी ने कहा - 'फेरे तो सात ही होते है, सात फेरों के बिना विवाह अधुरा होता है । गांव व घर के बुजुर्गों से पूछा तो उन्होंने बताया कि-“हमारे राजपूत समाज में शादी में चार ही फेरे होते है इन चार फेरों में से तीन में दुल्हन आगे तथा एक में दूल्हा आगे रहता है । ये चार फेरे चार पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं । यही बात शास्त्रों में भी लिखी है ।”
साथ ही बुजुर्गों से ही राजपूत समाज में चार ही फेरे क्यों होते है के सम्बन्ध में एक मान्यता के बारे में भी सुनने को मिला ।
मान्यतानुसार राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबू जी राठौड़ का जब विवाह हो रहा था और फेरों की रस्म चल ही रही थी उन्होंने तीन ही फेरे ही लिए थे जिसमें वधु आगे थी कि उसी समय उन्हें एक सूचना मिली कि एक वृद्ध महिला की गायें लुटेरे लुट कर ले जा रहे है । उस वृद्धा ने अपनी बहुत ही अच्छी नस्ल की एक घोड़ी पाबूजी राठौड़ को इस शर्त पर दी थी कि जब उसके पशुधन की सुरक्षा के लिए कभी जरुरत पड़े तो वे तुरंत हाजिर होंगे । अत: पाबू जी राठौड़ ने अपना वो वचन निभाने के लिए बीच फेरों में ही पशुधन की रक्षा के लिए जाने का निर्णय लिया और चौथे फेरे में आगे होकर फेरों की रस्म को चार फेरों में पूर्ण कर दिया और उसी वक्त पाबू जी गठजोड़े को छोड़कर युद्ध के लिए निकल पड़े । और उस वृद्धा के पशुधन की रक्षार्थ लुटेरों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे।
पाबू जी द्वारा अपने विवाह में फेरों के उपरांत बिना सात फेरे पूरे किये ही बीच में उठकर गोरक्षा के लिए जाने व अपना बलिदान देने के बाद राजस्थान में राजपूत समुदाय में अब भी विवाह के दौरान चार फेरों और सात वचनों कि परंपरा है । ऐसी मान्यता कुछ बुजुर्ग लोग बताते है । अब सात की जगह चार फेरों का वास्तविक कारण तो बहुत सारे है पर हाँ आज भी राजस्थान में राजपूत समाज में सात की जगह चार फेरों व सात वचनों के साथ ही विवाह की रस्म पूरी की जाती है । जानकारी लेने पर पता चला कि देश के और भी राज्यों में सात की जगह चार, फेरों की रस्में निभाई जाती है । साथ ही वैदिक काल में भी चार फेरों से विवाह पूर्ण कराने का वर्णन मिलता है ।
राजपूत महिलाएं भी फेरों की रस्म के समय जो गीत गाती है उनमें सिर्फ चार फेरों का ही जिक्र होता है-
"पैलै तो फेरै लाडली दादोसा री पोती
दुजै तो फेरै लाडली बाबोसा री बेटी
अगणे तो फेरै काकां री भतीजी
चौथै तो फेरै लाडली होई रे पराई ।"
एक और मान्यता है की जब तक तीन फेरे होते है तब तक न तो वधु वर की पत्नी हो सकती है, और न ही वर वधु का पति। यानि की तीन फेरों तक तो दोनों के अलग -अलग तीन-तीन फेरे माने जाते है यानि की 3+3 =6 और जब चोथा फेरा होता है तो दोनों एक दुसरे के हो जाते है जो की 1 फेरा माना जाता है इस तरह से 7 फेरो का महत्त्व भी माना जाता है ।
यदि आपके पास भी इस संबंध में ज्यादा जानकारी हों तो कृपा टिप्पणी के माध्यम से इस फेरों की इन परम्पराओं पर प्रकाश डालने का कष्ट करें ।
सन्दर्भ कथा - पाबू जी राठौड़
राजस्थान की संस्कृति में पाबू जी राठौड़ को विशेष स्थान प्राप्त है। पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। कल्याण के लिए अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया और देवता के रूप में हमेशा के लिए अमर हो गए।
 पाबूजी राजस्थान के लोक देवताओं में से एक माने जाते हैं। राजस्थान में इनके यशगान स्वरूप 'पावड़े' (गीत) गाये जाते हैं व मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बाँची जाती है। 'पाबूजी की फड़' पूरे राजस्थान में विख्यात है। प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को पाबूजी के मुख्य 'थान' (मंदिर गाँव कोलूमण्ड) में विशाल मेला लगता है, जहाँ भक्तगण हज़ारों की संख्या में आकर उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं। राजस्थान के लोक जीवन में कई महान व्यक्तित्व देवता के रूप में सदा के लिए अमर हो गए। इन लोक देवताओं में कुछ को 'पीर' की संज्ञा दी गई है। एक जनश्रुति के अनुसार राजस्थान में पाँच पीर हुए हैं। इन्हें 'पंच पीर' भी कहा जाता है, जिनके नाम इस प्रकार हैं- उपरोक्त जनश्रुति का दोहा इस प्रकार है-
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया, मेहा। पांचो पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा॥     
पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.संवत 1313 में जोधपुर ज़िले में फलोदी के पास कोलू नामक गाँव में हुआ था। पाबूजी के पिताजी का नाम धाँधल जी राठौड़ था। पाबूजी का विवाह अमरकोट (अमरकोट एक नगर है जो सिंध, अमरकोट ज़िला, पाकिस्तान में स्थित है) के सोढ़ा राणा सूरजमल की पुत्री सुप्यारदे के साथ तय हुआ था।
फेरां सुणी पुकार जद, धाडी धन ले जाय |
आधा फेरा इण धरा, आधा सुरगां खाय ||
पाबूजी राठौड़ चारण जाति की एक वृद्ध औरतदेवल चारणी” से 'केसर कालवी' नामक घोड़ी इस शर्त पर ले आये थे कि जब भी उस वृद्धा पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करने के लिए आयेंगे चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझपर पर मेरे पशुधन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा के लिए जाना
“देवल चारणी” को उसकी रक्षा का वचन देने के बाद एक दिन पाबूजी राठौड़ अमरकोट के सोढा राणा   सूरजमल के यहाँ ठहरे हुए थे सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी राठौड़ को देखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथा अपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ के समक्ष रखा पाबूजी राठौड़ के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि 'मेरा सिर तो बिका हुआ है, विधवा बनना है तो विवाह करना ।  
लेकिन उस वीर ललना सोढ़ी राजकुमारी का प्रत्युतर था 'जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं, वह अमर है उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है और शादी तय हो गई
फेरां सुणी पुकार जद, धाडी धन ले जाय |
आधा फेरा इण धरा, आधा सुरगां खाय ||
किन्तु जिस समय पाबूजी ने तीसरा फेरा लिया, ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी “देवल चारणी” पर संकट गया था चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था, इसी नाराजगी के कारण आज मौका देखकर उसने चारणी की गायों को घेर लिया था।
संकट के संकेत (घोड़ी की हिन्-हिनाहट)को सुनते ही वीर पाबूजी विवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठजोड़े को काट कर “देवल चारणी” को दिए वचन की रक्षा के लिए, “देवल चारणी” के संकट को दूर-दूर करने चल पड़े ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए चौथा बाकी है ,पर कर्तव्य मार्ग के उस बटोही को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी। जिसे सुनकर वह चल दिया; सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर, रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही।
और वह चला गया -क्रोधित नारद की वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ, भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ, उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवी घोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिड़ा, गायें छुडवाकर अपने वचन का पालन किया किन्तु वीर-गति को प्राप्त हुआ।
इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई।
इण ओसर परणी नहीं, अजको जुंझ्यो आय
सखी सजावो साज सह, सुरगां परणू जाय।।
शत्रु जूझने के लिए चढ़ आया। अत: इस अवसर तो विवाह सम्पूर्ण नहीं हो सका। हे सखी! तुम सती होने का सब साज सजाओ ताकि मैं स्वर्ग में जाकर अपने पति का वरण कर लूँ यों उस वीर ने आधे फेरे यहाँ व शेष स्वर्ग में पूरे किये।